Monday, February 15, 2010



ना उनकी कहानी जानता है,

ना उनके फसानों को जाना ;

आब-ऐ-रूह में जो अक्स बना,

बस उसे हकीक़त मान लिया |




था पता ज़रा नादान है दिल,

पर निकला ये बेईमान बड़ा ;

उस अक्स को पल भर ही देखा,

एक ही नज़र में खुद को हार गया |


Thursday, February 4, 2010

सुख सपनों से ओझल

खोया था खुद ही अपने में
राहों में, अपने सपनों में
सुबह की किरणों के धागों से
कुछ ख्वाब बुना करता था|

दो पल जो बैठा आँगन में
चांदनी भरने आँखों में
एक सपना मेरी तिजोरी से
आँख को कोसा करता था|

सोचा था, रात अँधेरा है
हर एक पथिक को रोका है
सोचा था रात में बस तारे हैं
पर वो कब मेरा मकसद थे?

जब चुरा गया कोई इस अम्बर से
रात की ढलती मदहोशी में
एहसास हुआ इन तारों में
एक चाँद हुआ करता था|

वो चाँदनी अब भी फैली है
शीतलता अब भी बहती है
उठे ज्वार यहाँ की दूजे घर में
वो चाँद खिला करता है|

है पता मुझे की ज्वार उठा
हुई आहट; कि और एक बाँध बना
गर छिटकी चाँदनी आँगन में
सब सपने नींद से ढक देंगे|

उस चाँद पर मेरा हक ही क्या
न अपनाई जिसकी आभा
आज गगन के विस्थापन पर
क्यूँ ये मन व्यथित होता है?

चाहूं उस बाँध में एक दरार
वो चाँद इस आँगन में संवार
पर जानूं नियति की कुटिल चाल
सपने घेरेंगे फिर एक बार|