Sunday, September 16, 2012

अधूरी-पूरी कहानी

This is my attempt at a new style of poem. I call it "Split Poem". The poem starts as a single thread or line of thought. Then splits into two, representing two parallel lines of thoughts or parallel set of events. In this particular poem, the emphasis is more on the introduction of the concept rather than the content. Also, here the parallel thoughts again get converged into one. So you can even call it a  "Split and Merge Poem".


दिल पगला फिर से मचल उठा,
मौसम की थोड़ी बेईमानी!
फिर आज महक के फूल खिला,
रंग बिखराती वो तितली आई।
"खिला इसी ख्वाहिश में हर दिन
बिखराता महक मैं भीनी सी।
एक झलक पड़े उस तितली की
दो बातों की हो लेनी देनी"
"उडी इसी ख्वाहिश में हर दिन
फैलाती मैं पंख सतरंगी
पड़ जाए नज़र उस फूल की मुझपे
 दो बातों की हो लेनी देनी"
"क्या सोचती होगी मेरे बारे में?
सोचती होगी या भी नहीं?
हज़ार फूल हैं इस बगिया में
आगे उनके मैं कुछ भी नहीं।"
"क्या देखा होगा उसने कभी?
भाये होंगे रंग मेरे भी?
ऐसे फूल पर इठलाने वाली
तितलियों की आखिर कमी नहीं "
"जब पड़ती हैं उसके पंखों पर
रंगीन हो जाती किरणे भी।
वो उड़ती रहती आज़ादी से
मैं बैठा जड़,  चिर स्थायी।"
"जब पड़ती ओस पर पंखुड़ियों की
चमक उठती हैं किरणें भी
झूलता वो तो मस्त पवन में
मेरा तो कोई ठोर नहीं "
"देखो तो कोई मेल नहीं,
 इकरार न बन ले बोझ कहीं!
दूर से बुझती प्यास ये मन की,
मेरे प्रेम की शायद नियति यही।"