Thursday, June 27, 2013

अनुबोध

टूटी दीवारों के मलबे से
बिखरी खिड़की के  काँच चमकते हैं
नवनिर्माण को न्योता देते
कुछ खम्बे अब भी अडिग खड़े हैं

क्या निर्माण में था कोई खोट छुपा?
या आंधी का ही था वेग बड़ा?
या तीष्ण हवा के प्रबल प्रवाह में
घर बनाने का निर्णय गलती था?

आंधी को फिर भी करें नमन
प्रकृति नियमों से चलने को बाधित
हार तो तब, जब क्षींण हो संबल
मन शीशमहल के हम ही अधिकारी

विध्वंस की लीला के सजे रंगमंच पर
कोई नहीं कर सकता बिन इच्छा प्रक्षेप
किसी अदृश्य निर्देशक को नहीं अनुमति
हमारे अभिनय में करे हस्तक्षेप.