हार के उल्टे पथ पर मैं
भूले शस्त्रों को खोज रहा हूँ,
फिर उगा सके उस कल्प वृक्ष को
उन बिखरे बीजों को ढूँढ रहा हूँ.
झड़ते पत्ते, ढकती राहें
हर बार नया पथ खोज रहा हूँ,
जलते सूरज की आग को रोके
ऐसा एक वट ढूँढ रहा हूँ
नहीं पराजित, नहीं विजित मैं,
नित रोज़ नया रण खोज रहा हूँ,
जब हूंकार उठे बिन बख्तर मैं
एक नए किले पर चढ़ता हूँ
हैं नियम पता, है पता खेल
हैं पता इस रण के उलटफेर,
फिर भी हर बाज़ी में लग जाते
क्यूँ टूटी तलवारों के ढेर?
क्यूँ हुआ यही? क्यूँ हुआ गलत?
हर तिमिर यह आग सुलगती है,
इस आग में हो जाऊं जौहर
हर इच्छा यही कसकती है.
नए मौसम की मद-मदिरा में
माली जो एक पल भटक गया,
उस मौसम के ही ताप में देखो
बरसों का उपवन झुलस गया.
हर शस्त्र का अपना अपना मान
हर वृक्ष का अपना अपना ध्यान,
क्यूँ भूल गया यह सीधी बात?
अब ढोता पछतावे का भार...
very inspiring poem...
ReplyDeletebut beware of thiefs.. :)
very b'utiful presentation of thoughts....
ReplyDeletekeep this fire kindled in you forever.