Tuesday, May 17, 2016

मन करता है

बहुत रह लिए कमरों में
अब घर में रहने को मन करता है ।
जश्न मनाये लाख भले ही
त्योहारों का जी करता है।

रहती नींद अधूरी, दुखती है गर्दन
सोते कहाँ? बस, बेहोश होते हैं गद्दे तकिए पे ।
सिक्कों की खनक से मीठी लोरी
वो कंधे पे सोना याद आता है ।

कम  से लगते हैं रंग आजकल
जाने कब उँगलियों  से स्याही पोंछी थी!
बीमार तो होते हैं आज भी
जाने कब बारिश में खेलना गलती थी!

थक गए खुद के पैरों पर खड़े खड़े
अब हाथ पकड़ के चलना है
बहुत रह लिए कमरों में
अब घर में रहने का मन करता है । 

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